Sunday 1 July 2018

मशला और मशाला

एक होता है मशला। देश में कयी सारे थे,जिनका हल करना बाकी था। मोदी जी ने भी चुनाव पूर्व खूब मशले उठाये। जनता को पसंद भी आये। लोग निकले,और थोकबंद ईवीएमिया की टीं बजाकर तीन दशक बाद किसी एक दल को पूर्ण बहुमत दे दिया ताकि मशले हल हो सकें। समान नागरिक अधिकार,धारा तीन सौ
सत्तर,भृष्टाचार,भूख,भय,रोजगार,राम मंदिर विवाद,आधार- निराधार,किसान को लागत का डेढ गुना दाम,पूर्व सैनिकों को ओ आर ओ पी आदि जेसे कयी कयी ज्वलंत मशले थे देश में/चार साल बीतते बीतते सभी मशले मशालेदार लफ्फाजी हो गये। समान अधिकार तीन तलाक तक सिमट गया,धारा तीन सौ सत्तर पहले गठबंधन की गांठ बंधी और फिर खुल भी गयी,भृष्टाचार प्रशासन से ईवीएम तक हर जगह वाइरस जेसा हो गया,भूख पेट की तो शांत हुई नहीं, अलबत्ता मंहगाई और सत्ता की बढती ही चली गयी,कि गोआ और मणिपुर का जनादेश जौङतोङ की भेंट चढ गया,कर्नाटक का नाटक भी चला,दो विधायक जीतने वाला दल सूबे की सरकार बनाने लग गया। रोजगार का वादा दो करोङ हर साल पूरा होने की जगह नोटबंदी की भ्रुण हत्या की भेंट चढ गया,करोङो नये बेरोजगार पैदा हो गये। डीजल-पैट्रोल के दाम सुरसा के मुख से भी बङे हो गये,कि एक अकेले हनुमान क्या,पूरा का पूरा देश उसमें समा गया। और यही एकमात्र जीडीपी ग्रोथ का जरिया बन गया। राम मंदिर विवाद से उच्चतम न्यायालय तक मुख मोङने लगा,और जो आधार प्रधानमंत्री जी के चुनाव पूर्व भाषणों में निराधार हुआ करता था,आज सर्वाधार साबित किया जा रहा है।‌ जन्म-मृत्यु से लेकर हगने-मूतने तक‌ में अनिवार्य आधार पता नहीं क्यों मतदाता पहचान पत्र से लिंक होने में अप्रासंगिक बना हुआ है?
मशले खुसबूदार मशाले बन कर परोसे जा रहे हैं।गौ रक्षा प्रमुख मुद्दा बनकर भी भारत मांस निर्यात में दुनियां भर में तीन नम्बर से अव्वल नम्बर पर आ गया है।सत्ता का अतिरेक किसी सांसद को सार्वजनिक रूप से किसी विमान अधिकारी को जुतियाने का हक ही नहीं दे रहा,बल्कि समूची संसद उसे औचित्यपूर्ण मानकर नियम तक बदले दिये दे रही है। सूबे के सरदार किसी महिला शिक्षिका को जनता दरबार में जलील कर उसे उसके रोजगार से न केवल मुअत्तल ही कर रहे हैं,अपितु उसे प्रेष के केमरों के सामने गरिफ्तार करने का आदेश भी थमा रहे हैं। शासन सूचना के अधिकार को बौना बनाने के लिए जनमत सर्वेक्षण में जुटा हुआ कि सूचना मांगने वाले की मृत्यु के पश्चात सूचना ही न दी जाये, ताकि अकारण मृत्यु के भय से कोई सूचना की मांग कर ही न सके। लोकपाल पास होकर भी नियुक्ति की बाट तकता रह गया,अन्ना फिर एक बार आये भी और बिना राम लीला किए,चले भी गये। पता नहीं क्यों अन्ना इस बार भरोसेमंद की जगह भयभीत नजर आये? जबकि विपक्ष में रहते गैर जरूरी जीएसटी अब राज्यसभा से बाईपास जाकर वित्त विधेयक की शक्ल में पास करा कर लागू की जा चुक कर‌ आज बतौर नागरिकों के,अपनी बरसी मना रही है,और बतौर शासन के पहला जन्म दिन? जो अब तक तो शासन को भी बैक फायर कर रही है,और व्यापार धंधे को चौपट भी।
नोटबंदी से पहले गिनाये गये सारे कारण पचास दिन की तय अवधि को डेढ साल पीछे छौङ कर भी कोई परिणाम हासिल नहीं कर पाये। न कालाधन मिला,न घाटी में पत्थरबाजी बंद हुई,न आतंकवाद पर लगाम लगी,न जाली नोट छपने बंद हुये,न केसलेस या लेसकेस,जो भी हो,इकोनोमी हुई,तो फिर हासिल क्या हुआ,यह बताना अब भी गैर जरूरी ही साबित हुआ है,हां‌ एक एक कर बौद्धिक सलाहकार शासन को छौङकर जाने को मुब्तिला जरूर हुये? जिन रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को‌ अयोग्य साबित करने का पूरा पूरा प्रयास किया गया,उनको विश्व बैंक ने अपना गवर्नर बनाना अपना गौरव समझा।
पहली बार कैन्द्रीय मंत्रीमंडल का अधिकांश हिस्सा जनता की अदालत में चुनाव हारे हुए निष्ठावान व्यक्तियों से गठित हुआ है।जो केवल और केवल हां में हां मिलाते नजर आ रहा है। बाबाओं को मंत्रियों के दर्जे मिल रहे है,और फिर दरकता हुआ चौथा खम्बा मीडिया अपने खण्डहर होते महल की दीवारों से आम आदमी के अच्छे दिन की आस लगाये बैठा,किसी फिल्म स्टार के जेल जाने के औचित्य पर बहस कर रहा है,तो उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीश जनता की अदालत में हाथ जौङ लोकतंत्र को बचाने की गुहार लगा रहे हैं। उधर देश के प्रधानमंत्री कभी एक सौ पच्चीस करोङ परिवारों द्वारा गैस सब्सिडी छौङने की लफ्फाजी करने को व्यस्त है,तो कभी ग्यारहवीं सदी के गुरू गोरखनाथ,चौदहवीं सदी के संत कबीर और पन्द्रहवीं सदी के गुरु नानक देव की धर्म संसद होने का इतिहास गढने में,उस पर तुर्रा यह कि किसी पुर्ण कालिक वित्त‌ मंत्री की गैर हाजरी में भारतीय रुपया डॉलर के सामने किलो के भाव मिलने की‌ गति को प्राप्त हो चुका है,लेकिन उसकी जवाबदेही के लिए कोई सामने ही नहीं है। हम सब यह बखूबी जानने लगे हैं कि अच्छे दिन का नारा भी कोई नारा नहीं था, केवल मात्र एक जुमला ही था...अस्तु।
विनोद दाधीच"वीनू"
सूरत

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