Tuesday 4 September 2018

लघुकथा - माँ बेटा


मैं एक घर के करीब से गुज़र रहा था की अचानक से मुझे उस घर के अंदर से एक बच्चे की रोने की आवाज़ आई। उस बच्चे की आवाज़ में इतना दर्द था कि अंदर जा कर वह बच्चा क्यों रो रहा है, यह मालूम करने से मैं खुद को रोक ना सका।
अंदर जा कर मैने देखा कि एक माँ अपने दस साल के बेटे को आहिस्ता से मारती और बच्चे के साथ खुद भी रोने लगती। मैने आगे हो कर पूछा बहनजी आप इस छोटे से बच्चे को क्यों मार रही हो? जब कि आप खुद भी रोती हो।
उस ने जवाब दिया भाई साहब इस के पिताजी भगवान को प्यारे हो गए हैं और हम लोग बहुत ही गरीब हैं, उन के जाने के बाद मैं लोगों के घरों में काम करके घर और इस की पढ़ाई का खर्च बामुश्किल उठाती हूँ और यह कमबख्त स्कूल रोज़ाना देर से जाता है और रोज़ाना घर देर से आता है।
जाते हुए रास्ते मे कहीं खेल कूद में लग जाता है और पढ़ाई की तरफ ज़रा भी ध्यान नहीं देता है जिस की वजह से रोज़ाना अपनी स्कूल की वर्दी गन्दी कर लेता है। मैने बच्चे और उसकी माँ को जैसे तैसे थोड़ा समझाया और चल दिया।
इस घटना को कुछ दिन ही बीते थे की एक दिन सुबह सुबह कुछ काम से मैं सब्जी मंडी गया। तो अचानक मेरी नज़र उसी दस साल के बच्चे पर पड़ी जो रोज़ाना घर से मार खाता था। मैं क्या देखता हूँ कि वह बच्चा मंडी में घूम रहा है और जो दुकानदार अपनी दुकानों के लिए सब्ज़ी खरीद कर अपनी बोरियों में डालते तो उन से कोई सब्ज़ी ज़मीन पर गिर जाती थी वह बच्चा उसे फौरन उठा कर अपनी झोली में डाल लेता।
मैं यह नज़ारा देख कर परेशानी में सोच रहा था कि ये चक्कर क्या है, मैं उस बच्चे का चोरी चोरी पीछा करने लगा। जब उस की झोली सब्ज़ी से भर गई तो वह सड़क के किनारे बैठ कर उसे ऊंची ऊंची आवाज़ें लगा कर वह सब्जी बेचने लगा। मुंह पर मिट्टी गन्दी वर्दी और आंखों में नमी, ऐसा महसूस हो रहा था कि ऐसा दुकानदार ज़िन्दगी में पहली बार देख रहा हूँ ।
अचानक एक आदमी अपनी दुकान से उठा जिस की दुकान के सामने उस बच्चे ने अपनी नन्ही सी दुकान लगाई थी, उसने आते ही एक जोरदार लात मार कर उस नन्ही दुकान को एक ही झटके में रोड पर बिखेर दिया और बाज़ुओं से पकड़ कर उस बच्चे को भी उठा कर धक्का दे दिया।
वह बच्चा आंखों में आंसू लिए चुप चाप दोबारा अपनी सब्ज़ी को इकठ्ठा करने लगा और थोड़ी देर बाद अपनी सब्ज़ी एक दूसरे दुकान के सामने डरते डरते लगा ली। भला हो उस शख्स का जिस की दुकान के सामने इस बार उसने अपनी नन्ही दुकान लगाई उस शख्स ने बच्चे को कुछ नहीं कहा।
थोड़ी सी सब्ज़ी थी ऊपर से बाकी दुकानों से कम कीमत। जल्द ही बिक्री हो गयी, और वह बच्चा उठा और बाज़ार में एक कपड़े वाली दुकान में दाखिल हुआ और दुकानदार को वह पैसे देकर दुकान में पड़ा अपना स्कूल बैग उठाया और बिना कुछ कहे वापस स्कूल की और चल पड़ा। और मैं भी उस के पीछे पीछे चल रहा था।
बच्चे ने रास्ते में अपना मुंह धो कर स्कूल चल दिया। मै भी उस के पीछे स्कूल चला गया। जब वह बच्चा स्कूल गया तो एक घंटा लेट हो चुका था। जिस पर उस के टीचर ने डंडे से उसे खूब मारा। मैने जल्दी से जा कर टीचर को मना किया कि मासूम बच्चा है इसे मत मारो। टीचर कहने लगे कि यह रोज़ाना एक डेढ़ घण्टे लेट से ही आता है और मै रोज़ाना इसे सज़ा देता हूँ कि डर से स्कूल वक़्त पर आए और कई बार मै इस के घर पर भी खबर दे चुका हूँ।
खैर बच्चा मार खाने के बाद क्लास में बैठ कर पढ़ने लगा। मैने उसके टीचर का मोबाइल नम्बर लिया और घर की तरफ चल दिया। घर पहुंच कर एहसास हुआ कि जिस काम के लिए सब्ज़ी मंडी गया था वह तो भूल ही गया। मासूम बच्चे ने घर आ कर माँ से एक बार फिर मार खाई। सारी रात मेरा सर चकराता रहा।
सुबह उठकर फौरन बच्चे के टीचर को कॉल की कि मंडी टाइम हर हालत में मंडी पहुंचें। और वो मान गए। सूरज निकला और बच्चे का स्कूल जाने का वक़्त हुआ और बच्चा घर से सीधा मंडी अपनी नन्ही दुकान का इंतेज़ाम करने निकला। मैने उसके घर जाकर उसकी माँ को कहा कि बहनजी आप मेरे साथ चलो मै आपको बताता हूँ, आप का बेटा स्कूल क्यों देर से जाता है।
वह फौरन मेरे साथ मुंह में यह कहते हुए चल पड़ीं कि आज इस लड़के की मेरे हाथों खैर नही। छोडूंगी नहीं उसे आज। मंडी में लड़के का टीचर भी आ चुका था। हम तीनों ने मंडी की तीन जगहों पर पोजीशन संभाल ली, और उस लड़के को छुप कर देखने लगे। आज भी उसे काफी लोगों से डांट फटकार और धक्के खाने पड़े, और आखिरकार वह लड़का अपनी सब्ज़ी बेच कर कपड़े वाली दुकान पर चल दिया।
अचानक मेरी नज़र उसकी माँ पर पड़ी तो क्या देखता हूँ कि वह बहुत ही दर्द भरी सिसकियां लेकर लगा तार रो रही थी, और मैने फौरन उस के टीचर की तरफ देखा तो बहुत शिद्दत से उसके आंसू बह रहे थे। दोनो के रोने में मुझे ऐसा लग रहा था जैसे उन्हों ने किसी मासूम पर बहुत ज़ुल्म किया हो और आज उन को अपनी गलती का एहसास हो रहा हो।
उसकी माँ रोते रोते घर चली गयी और टीचर भी सिसकियां लेते हुए स्कूल चला गया। बच्चे ने दुकानदार को पैसे दिए और आज उसको दुकानदार ने एक लेडी सूट देते हुए कहा कि बेटा आज सूट के सारे पैसे पूरे हो गए हैं। अपना सूट ले लो, बच्चे ने उस सूट को पकड़ कर स्कूल बैग में रखा और स्कूल चला गया।
आज भी वह एक घंटा देर से था, वह सीधा टीचर के पास गया और बैग डेस्क पर रख कर मार खाने के लिए अपनी पोजीशन संभाल ली और हाथ आगे बढ़ा दिए कि टीचर डंडे से उसे मार ले। टीचर कुर्सी से उठा और फौरन बच्चे को गले लगा कर इस क़दर ज़ोर से रोया कि मैं भी देख कर अपने आंसुओं पर क़ाबू ना रख सका।
मैने अपने आप को संभाला और आगे बढ़कर टीचर को चुप कराया और बच्चे से पूछा कि यह जो बैग में सूट है वह किस के लिए है। बच्चे ने रोते हुए जवाब दिया कि मेरी माँ अमीर लोगों के घरों में मजदूरी करने जाती है और उसके कपड़े फटे हुए होते हैं कोई जिस्म को पूरी तरह से ढांपने वाला सूट नहीं और और मेरी माँ के पास पैसे नही हैं इस लिये अपने माँ के लिए यह सूट खरीदा है।
तो यह सूट अब घर ले जाकर माँ को आज दोगे? मैने बच्चे से सवाल पूछा। जवाब ने मेरे और उस बच्चे के टीचर के पैरों के नीचे से ज़मीन ही निकाल दी। बच्चे ने जवाब दिया नहीं अंकल छुट्टी के बाद मैं इसे दर्जी को सिलाई के लिए दे दूँगा। रोज़ाना स्कूल से जाने के बाद काम करके थोड़े थोड़े पैसे सिलाई के लिए दर्जी के पास जमा किये हैं।
टीचर और मैं सोच कर रोते जा रहे थे कि आखिर कब तक हमारे समाज में गरीबों के साथ ऐसा होता रहेगा उन के बच्चे त्योहार की खुशियों में शामिल होने के लिए जलते रहेंगे आखिर कब तक।
क्या ऊपर वाले की खुशियों में इन जैसे गरीब का कोई हक नहीं ? क्या हम अपनी खुशियों के मौके पर अपनी ख्वाहिशों में से थोड़े पैसे निकाल कर अपने समाज मे मौजूद गरीब और बेसहारों की मदद नहीं कर सकते।
आप सब भी ठंडे दिमाग से एक बार जरूर सोचना ! ! ! !
अगर हो सके तो इस लेख को उन सभी सक्षम लोगो को बताना ताकि हमारी इस छोटी सी कोशिश से किसी भी सक्षम के दिल मे गरीबों के प्रति हमदर्दी का जज़्बा ही जाग जाये और यही लेख किसी भी गरीब के घर की खुशियों की वजह बन जाये।
(संकलित)- 
साभार - गणपत भंसाली जी की  फेसबूक वाल से 

Saturday 1 September 2018

चिंतन प्रवाह 254 - बनेचन्द मालू

::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
          चिन्तन प्रवाह (२५४)
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
              सोच का फर्क
:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
     कोई कहता है फलां ने मुझे
     धोखा दिया, मुझे दुःख हुआ।
   वही वाकिया दूसरे के साथ भी     
                    हुआ,
      उसके साथ भी दगा हुआ।
कहा जो होना था हुआ, वह दुःखी
                  नहीं हुआ।
   क्योंकि उसने सोच बदल लिया।

  उसकी सोच है बिलकुल सही।
   दुःख  इसलिए होता है क्योंकि 
  हम मान कर चलते हैं हमारे साथ
          अच्छा ही अच्छा होगा,
    और वह वश की बात नहीं ।
  इसलिए जब कुछ बुरा होता है
      तो मन में कुछ बाकी नहीं।

  तो विश्लेषण करें,दुःख इसलिए
नहीं हुआ कि हमारे साथ हुआ दगा।
  दुःख इसलिए हुआ कि हम मान
                कर चलते हैं,
   हमारे साथ कभी बुरा नहीं होगा।

      यहीं हम भूल करते हैं।
हम ऐसी दुनिया नहीं बना सकते,
                जहाँ
हमें कोई चोट न पहुँचा सके।
  इस जगत में हरेक के साथ अच्छा
       बुरा कर्मानुसार सब होगा।

हमें हमारी सोच को स्वीकारात्मक
         बना कर रखना होगा।
   यदि हम प्रभावित हो कर यूं ही
           विचलित होते रहें,
       तो जीवन की नौका यूं ही
               डगमगती रहेगी।
कभी इससे,कभी उससे चोट खाती
                    रहेगी।

यह सोच बदलें, आत्मबोध करें  कि
   ‘कभी जब बुरा होता है तो वह
               संयोग होता है।    
उसकी अनुभूति की आग मुझे नहीं
              जला सकती    
    परिस्थितियाँ मुझे नहीं हिला
                  सकती।’

यही सकारात्मक सोच जीवन का
            सच्चा आधार है।
  जम जाए यह गहन, तो फिर मन
            विचलित नहीं होगा,
  हर परिस्थिति में आनंद अपार है।

      हजारों गुलाब हैं राहों में,
      पर काँटे भी हैं बे हिसाब।
       इसी का नाम है जिन्दगी,
          चलते रहिए जनाब।

••••••••••••••• बनेचन्द मालू
==================

Friday 24 August 2018

आचार्य श्री तुलसी से लेकर वर्तमान में आचार्य श्री महाश्रमण जी के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा हैं हरियाणा के सरदार सोहनसिंह जी मक्कड़ की, हर चातुर्मास में पहुंचते हैं धर्म-आराधना हेतु


गुरुवार 23 अगस्त, माधवरम, चेन्नई (  आलेख - गणपत भंसाली )


भारत अनेक पन्थो,मतों व सम्प्रदायों का देश हैं, नाना प्रकार के धर्मो की ये एक सुंदर बगिया है जहां विभिन्न सम्प्रदाय रूपी रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं, यहां अनेकता में एकता के दर्शन होते हैं, अनेक धर्म ऐसे हैं जिनके अनुयायी बनने हेतु कोई विशेष औपचारिकताएं नही होती, ना ही अपना मूल धर्म छोड़ना पड़ता है,बस अपने परम् श्रद्धेय गुरु के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा के भाव जागृत हो जाने चाहिए, में इन दिनों चेन्नई स्थित माधवरम में चातुर्मासार्थ विराजमान शांतिदूत आचार्य श्री महाश्रमण जी के दर्शन निमित पहुंचा हुआ हूँ, चेन्नई रेलवे स्टेशन के प्रतिरूप आकार में निर्मित विशाल प्रवचन पांडाल "महाश्रमण समवसरण" में प्रातःकालीन प्रवचन श्रवण कर ही रहा था कि मेरी नजर केशरिया रंग की पगड़ी पहने एक बुजुर्ग सरदार जी पर पड़ी, जो कि प्रवचन श्रवण के दौरान मुंह पर रुमाल रूपी मुँहपट्टी लगाए हुए थे, मेरे मन मे उनसे रूबरू होने की जिज्ञासा जगी,जैसे ही प्रवचन सम्पन्न हुआ और श्रद्धालुओं का कारवां पांडाल से बाहर की और कूच करने लगा तो में शीघ्रता के साथ सरदार जी के समीप पहुंच गया, और उनसे अभिवादन कर कुछ जानने की अपनी मंशा व्यक्त की, तो उन्होंने सहर्ष जानकारी देने की अपनी सहमति प्रदान की, जब मैंने उनसे नाम,शहर, व्यवसाय व तेरापंथ धर्म संघ के प्रति जुड़ाव सम्बन्धी विगत जाननी चाही,तो उन्होंने बताया कि उनका नाम सरदार सोहनसिंह मक्कड़ है, वे हरियाणा के सिरसा स्थित मंडी कालांवाली के निवासी है, वे पिछले 18 वर्षों से तेरापंथ धर्म संघ से जुड़े हुए हैं, वे बताते हैं कि करीब 18 वर्ष पहले आचार्य श्री तुलसी नेतृत्व काल मे मुनि श्री रोशन लाल जी स्वामी व मुनि श्री सम्भवकुमार जी आदि सन्त हमारे मंडी कालांवाली चातुरमासार्थ पधारे हुए थे, तब उनके दर्शन करने का संयोग हुआ था, उनके प्रवचन सुनने हेतु जाने का सिलसिला नियमित रूप से प्रारम्भ हुआ, फिर गुरुदेव के प्रति श्रद्धा प्रगाढ़ होती चली गई, एक दिन गुरुवर के प्रति असीम श्रद्धा ने मुझे लाडनू की यात्रा करवा दी, श्री सोहनसिंह जी आंखों देखी का वर्णन करते हुए बताते हैं कि लाडनू के प्रवचन पांडाल में प्रवचन सम्पन्न होते ही गुरुदेव की दिव्य दृष्टि मुझ पर पड़ी और मुझे निकट पहुंचने हेतु इंगित किया, गुरुदेव की इस अनुकम्पा से मानो में तो निहाल ही हो गया, गुरुदेव के निकट पहुंचा और आप श्री ने मेरे बारे में जानकारी ली, मैंने सारी विगत बताई, कि किस तरह मेरा जुड़ाव इस धर्म संघ से हुआ, कभी कपड़े के कारोबारी रहे 76 वर्षीय श्री सोहनसिंह जी मक्कड़ इन दिनों निवृत है व नित्य गुरुद्वारा पहुंच कर धर्म-आराधना में लीन रहते हैं, वे अपने शहर कालांवाली में प्रत्येक शनिवार को गुरु इंगित अनुसार सामयिक आराधना करना नही भूलते, श्री सोहन सिंह जी ने बताया कि वे इन 18 वर्षों में आचार्य श्री तुलसी, आचार्य श्री महाप्रज्ञजी तथा वर्तमान में आचार्य श्री महाश्रमण जी के जहां-जहां चातुर्मास हुए हैं वहां-वहां वे कोलकोता व गोहाटी चातुर्मास को छोड़ सभी जगह पहुंचे हैं, व गुरुओं के दर्शन आराधना में लीन रहे हैं। वे कहते हैं कि अपने मूल धर्म से जुड़े रहते हुए भी आप अन्य धर्म की खूबियों व अच्छाइयों को अंगीकार कर सकते हैं, धन्य है श्री सोहन सिंह जी जैसे प्रगाढ़ श्रावक...
÷=÷=÷=÷=÷=÷=÷=÷=÷=÷=÷=÷=÷=÷=
(गुरुवार 23 अगस्त, माधवरम, चेन्नई )

Sunday 1 July 2018

मशला और मशाला

एक होता है मशला। देश में कयी सारे थे,जिनका हल करना बाकी था। मोदी जी ने भी चुनाव पूर्व खूब मशले उठाये। जनता को पसंद भी आये। लोग निकले,और थोकबंद ईवीएमिया की टीं बजाकर तीन दशक बाद किसी एक दल को पूर्ण बहुमत दे दिया ताकि मशले हल हो सकें। समान नागरिक अधिकार,धारा तीन सौ
सत्तर,भृष्टाचार,भूख,भय,रोजगार,राम मंदिर विवाद,आधार- निराधार,किसान को लागत का डेढ गुना दाम,पूर्व सैनिकों को ओ आर ओ पी आदि जेसे कयी कयी ज्वलंत मशले थे देश में/चार साल बीतते बीतते सभी मशले मशालेदार लफ्फाजी हो गये। समान अधिकार तीन तलाक तक सिमट गया,धारा तीन सौ सत्तर पहले गठबंधन की गांठ बंधी और फिर खुल भी गयी,भृष्टाचार प्रशासन से ईवीएम तक हर जगह वाइरस जेसा हो गया,भूख पेट की तो शांत हुई नहीं, अलबत्ता मंहगाई और सत्ता की बढती ही चली गयी,कि गोआ और मणिपुर का जनादेश जौङतोङ की भेंट चढ गया,कर्नाटक का नाटक भी चला,दो विधायक जीतने वाला दल सूबे की सरकार बनाने लग गया। रोजगार का वादा दो करोङ हर साल पूरा होने की जगह नोटबंदी की भ्रुण हत्या की भेंट चढ गया,करोङो नये बेरोजगार पैदा हो गये। डीजल-पैट्रोल के दाम सुरसा के मुख से भी बङे हो गये,कि एक अकेले हनुमान क्या,पूरा का पूरा देश उसमें समा गया। और यही एकमात्र जीडीपी ग्रोथ का जरिया बन गया। राम मंदिर विवाद से उच्चतम न्यायालय तक मुख मोङने लगा,और जो आधार प्रधानमंत्री जी के चुनाव पूर्व भाषणों में निराधार हुआ करता था,आज सर्वाधार साबित किया जा रहा है।‌ जन्म-मृत्यु से लेकर हगने-मूतने तक‌ में अनिवार्य आधार पता नहीं क्यों मतदाता पहचान पत्र से लिंक होने में अप्रासंगिक बना हुआ है?
मशले खुसबूदार मशाले बन कर परोसे जा रहे हैं।गौ रक्षा प्रमुख मुद्दा बनकर भी भारत मांस निर्यात में दुनियां भर में तीन नम्बर से अव्वल नम्बर पर आ गया है।सत्ता का अतिरेक किसी सांसद को सार्वजनिक रूप से किसी विमान अधिकारी को जुतियाने का हक ही नहीं दे रहा,बल्कि समूची संसद उसे औचित्यपूर्ण मानकर नियम तक बदले दिये दे रही है। सूबे के सरदार किसी महिला शिक्षिका को जनता दरबार में जलील कर उसे उसके रोजगार से न केवल मुअत्तल ही कर रहे हैं,अपितु उसे प्रेष के केमरों के सामने गरिफ्तार करने का आदेश भी थमा रहे हैं। शासन सूचना के अधिकार को बौना बनाने के लिए जनमत सर्वेक्षण में जुटा हुआ कि सूचना मांगने वाले की मृत्यु के पश्चात सूचना ही न दी जाये, ताकि अकारण मृत्यु के भय से कोई सूचना की मांग कर ही न सके। लोकपाल पास होकर भी नियुक्ति की बाट तकता रह गया,अन्ना फिर एक बार आये भी और बिना राम लीला किए,चले भी गये। पता नहीं क्यों अन्ना इस बार भरोसेमंद की जगह भयभीत नजर आये? जबकि विपक्ष में रहते गैर जरूरी जीएसटी अब राज्यसभा से बाईपास जाकर वित्त विधेयक की शक्ल में पास करा कर लागू की जा चुक कर‌ आज बतौर नागरिकों के,अपनी बरसी मना रही है,और बतौर शासन के पहला जन्म दिन? जो अब तक तो शासन को भी बैक फायर कर रही है,और व्यापार धंधे को चौपट भी।
नोटबंदी से पहले गिनाये गये सारे कारण पचास दिन की तय अवधि को डेढ साल पीछे छौङ कर भी कोई परिणाम हासिल नहीं कर पाये। न कालाधन मिला,न घाटी में पत्थरबाजी बंद हुई,न आतंकवाद पर लगाम लगी,न जाली नोट छपने बंद हुये,न केसलेस या लेसकेस,जो भी हो,इकोनोमी हुई,तो फिर हासिल क्या हुआ,यह बताना अब भी गैर जरूरी ही साबित हुआ है,हां‌ एक एक कर बौद्धिक सलाहकार शासन को छौङकर जाने को मुब्तिला जरूर हुये? जिन रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को‌ अयोग्य साबित करने का पूरा पूरा प्रयास किया गया,उनको विश्व बैंक ने अपना गवर्नर बनाना अपना गौरव समझा।
पहली बार कैन्द्रीय मंत्रीमंडल का अधिकांश हिस्सा जनता की अदालत में चुनाव हारे हुए निष्ठावान व्यक्तियों से गठित हुआ है।जो केवल और केवल हां में हां मिलाते नजर आ रहा है। बाबाओं को मंत्रियों के दर्जे मिल रहे है,और फिर दरकता हुआ चौथा खम्बा मीडिया अपने खण्डहर होते महल की दीवारों से आम आदमी के अच्छे दिन की आस लगाये बैठा,किसी फिल्म स्टार के जेल जाने के औचित्य पर बहस कर रहा है,तो उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीश जनता की अदालत में हाथ जौङ लोकतंत्र को बचाने की गुहार लगा रहे हैं। उधर देश के प्रधानमंत्री कभी एक सौ पच्चीस करोङ परिवारों द्वारा गैस सब्सिडी छौङने की लफ्फाजी करने को व्यस्त है,तो कभी ग्यारहवीं सदी के गुरू गोरखनाथ,चौदहवीं सदी के संत कबीर और पन्द्रहवीं सदी के गुरु नानक देव की धर्म संसद होने का इतिहास गढने में,उस पर तुर्रा यह कि किसी पुर्ण कालिक वित्त‌ मंत्री की गैर हाजरी में भारतीय रुपया डॉलर के सामने किलो के भाव मिलने की‌ गति को प्राप्त हो चुका है,लेकिन उसकी जवाबदेही के लिए कोई सामने ही नहीं है। हम सब यह बखूबी जानने लगे हैं कि अच्छे दिन का नारा भी कोई नारा नहीं था, केवल मात्र एक जुमला ही था...अस्तु।
विनोद दाधीच"वीनू"
सूरत

Tuesday 26 June 2018

आपातकाल - घोषित ओर अघोषित

एक होता है आपातकाल । दो प्रकार का होता है,एक घौषित,दूसरा अघौषित। भारत में‌ घौषित आपातकाल सन १९७५ की २५ जून से अगले १९ महीने तक चला। लोकतंत्र का तोता पिंजरे ( जेल) में कैद कर दिया गया। सारे मौलिक‌ अधिकार जाहिरा तौर पर छीन लिए गये। कोई लुका छीपी नहीं खेली गयी,जो किया गया,खुले तौर पर किया गया,लेकिन साथ ही साथ बीस सूत्री कार्यक्रम के माध्यम से जनहित के काम भी किए गये। सन १९७७ में फ्री और फेयर चुनाव करवाये गये। इंदिरा गांधी हार गयी। उन्होंने सत्ता छौङी। विपक्ष में बैठी। जेल भी भेजी गयी।
भारत में अघौषित आपातकाल २०१४ के जून महीने से अब तक लगातार चल रहा है। लोकतंत्र का तोता खुल्ला तो है,लेकिन उङ नहीं सकता है,यहां तक की‌ हिल‌ डुल भी नहीं सकता है। उसके पंजे रोड से बांध दिये हुये है। यह सब जाहिरा तौर पर नहीं किया जा रहा,बल्कि मोब‌ लिंचिंग( भीङ द्वारा हिंसा)शोशल और मैन मीडिया पर ट्रोल,विरोध करने पर हत्या( गौरी लंकेश)धमकी वाले फोन जेसे हथकंडो द्वारा अंजाम दिया जा रहा है। प्रेष तब बिल्कुल बेन था,तो अब भयभीत कर दिया गया हुआ है। ७४५ करोङ किसी बैंक में चार दिन में जमा हुये,यह बात खबर नहीं बनती,इसकी ऐवज में गुलाम नबी आजाद का बयान या सैफूद्दीन सोज की किताब चेनलो की बहस का मुद्दा बनती है।
जाहिरा आपातकाल को नागरिक निपट सकते है। उन्हे पता है कि संविधानिक मर्यादा में कहां तक विरोध करना है,लेकिन अघौषित आपातकाल में आपको‌ पता ही नहीं होता कि कब आपको भीङ द्वारा निपटा दिया जायेगा। घौषित आपातकाल में देश की एकता अखंडता को अक्षुण रक्खा गया,जबकि अघौषित आपातकाल में देश का सामाजिक‌ ताना बाना जाति धर्म सम्प्रदाय के नाम पर छिन्न भिन्न कर दिया गया है। अब तो लोकतंत्र अमर रहे,तक के नारे लगने लग गये। जबकि किसी के अमर हो जाने का नारा उसकी मृत्यु के बाद लगाया जाता है।
कुल जमा वर्तमान काल की परिस्थितियाँ लोकतंत्र तो किसी भी सूरत में नहीं कही जा सकती है...
अस्तु।
लेखक - विनोद दाधिच के स्वतंत्र विचार है सभी सहमत हो जरूरी नहीं