भारत में अघौषित आपातकाल २०१४ के जून महीने से अब तक लगातार चल रहा है। लोकतंत्र का तोता खुल्ला तो है,लेकिन उङ नहीं सकता है,यहां तक की हिल डुल भी नहीं सकता है। उसके पंजे रोड से बांध दिये हुये है। यह सब जाहिरा तौर पर नहीं किया जा रहा,बल्कि मोब लिंचिंग( भीङ द्वारा हिंसा)शोशल और मैन मीडिया पर ट्रोल,विरोध करने पर हत्या( गौरी लंकेश)धमकी वाले फोन जेसे हथकंडो द्वारा अंजाम दिया जा रहा है। प्रेष तब बिल्कुल बेन था,तो अब भयभीत कर दिया गया हुआ है। ७४५ करोङ किसी बैंक में चार दिन में जमा हुये,यह बात खबर नहीं बनती,इसकी ऐवज में गुलाम नबी आजाद का बयान या सैफूद्दीन सोज की किताब चेनलो की बहस का मुद्दा बनती है।
जाहिरा आपातकाल को नागरिक निपट सकते है। उन्हे पता है कि संविधानिक मर्यादा में कहां तक विरोध करना है,लेकिन अघौषित आपातकाल में आपको पता ही नहीं होता कि कब आपको भीङ द्वारा निपटा दिया जायेगा। घौषित आपातकाल में देश की एकता अखंडता को अक्षुण रक्खा गया,जबकि अघौषित आपातकाल में देश का सामाजिक ताना बाना जाति धर्म सम्प्रदाय के नाम पर छिन्न भिन्न कर दिया गया है। अब तो लोकतंत्र अमर रहे,तक के नारे लगने लग गये। जबकि किसी के अमर हो जाने का नारा उसकी मृत्यु के बाद लगाया जाता है।
कुल जमा वर्तमान काल की परिस्थितियाँ लोकतंत्र तो किसी भी सूरत में नहीं कही जा सकती है...
अस्तु।
लेखक - विनोद दाधिच के स्वतंत्र विचार है सभी सहमत हो जरूरी नहीं
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