राजस्थान के नाकोड़ा जैन तीर्थ पर प्रतिवर्ष आयोजित पोह दशम मेले के संदर्भ में एक वर्ष पूर्व आज ही के दिन ये आलेख फेसबुक पर पोस्ट किया था, चूंकि नाकोड़ा तीर्थ का ये मेला गत दिनों ही सम्पन्न हुआ है, अतः मेला समाप्ति पश्चात ये लेख प्रेषित कर रहा हूँ, ताकि नए जुड़े मित्रों के लिए उपयोगी साबित होगा....
जैन धर्म के 23 वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का जब जब जन्म कल्याणक दिवस आता है तो नाकोड़ा जी तीर्थ पर आयोजित पोह दशमी के विशाल मेले के परिदृश्य जीवन्त हो उठते हैं, हालाँकि यह मेला वर्षो-वर्षों से नाकोड़ा के रूप में प्रसिद्ध मेवानगर तीर्थ पर आयोजित होता आ रहा हैं, मुझे करीब 55-56 वर्ष पूर्व के वे दृश्य स्मृत हे जब इस मेले में सम्मिलित होने हेतु नाकोड़ा के निकटवृति जसोल, बालोतरा, पचपदरा, असाडा टापरा, कानाना, पारलू, समदड़ी, सिवाना, मोकलसर आदि कस्बो से श्रद्धालु 'वोहणो' (बैलगाड़ियों) पर सवार होकर तथा जोधपुर, बाड़मेर,जालोर आदि दुरी के शहरों से बसों आदि से भोर के अँधेरे में सपरिवार मेवानगर (नाकोड़ा जी) तीर्थ पर पहुंचते थे, इन बैलगाड़ियों पर बिस्तर बिछा दिए जाते थे और परिवार के क्या बच्चे और क्या बड़े, हर कोई नए
या साफ सुथरे कपड़े (पायजामा-बुशर्ट या निकर-बुशर्ट) पहन कर सवार होते थे. कभी- कभी यह संख्या छोटे-बड़े मिलाकर आठ-दस तक पहुंच जाती थी, परिवार की महिलाएं घर के सदस्यों के बीच भी हाथ भर घूंघट निकाले हुए व हाथी दांत का असली चूड़ा पहने हुए सयुक्त स्वर में अत्यंत ही सुरीले कण्ठ से एक प्रचलित गीत गाती थी. जिसके बोल बड़े ही सुहाने थे, जब-जब यह मेला आयोजित होता है तो परिवार की महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले... `चक सोंई रे उड़न्ते पंखेरू ने पूछ्यो, शंखेश्वर क़तरिक दूर....'( यानी उड़ते पंछी को पूछा जाता हैं कि शंखेश्वर तीर्थ अब कितना दूर है?) गीत की पंक्तियां कानो में रस घोलने लग जाती थी, सही मायनो में प्रभात वेला में महिलाओं द्वारा पवित्र भाव से गाए जाने वाला गीत प्रभु की किसी प्रार्थना-आराधना से कम नही होता था, यकीन मानिए कि हिचखोले खाती बेलगाडी की वो यात्रा इतनी सुखद व आनन्द दायक होती थी कि वर्तमान के इस आधुनिक व चकाचोंध भरे इस दौर में मसर्डिज,ओडी या बी एम् डब्ल्यू जैसी महंगी विलासिता पूर्ण कारों में भी वो आनन्द सम्भव नही हैं. बेलगाडी की यह यात्रा सिर्फ एक यात्रा ही नही होती थी, बल्कि परिवार के सामन्जस्य का अदभुत उदाहरण भी होती थी, जिस पथ से ये बेलगाडी गुजरती थी तो उसके दोनों और 'थोभ' ग्वारपाठा (एलोवेरा) के बड़े-बड़े पौधो की और बेल गाड़ी में बैठे बड़े बुजुर्ग छोटे लड़कों व युवाओं का ध्यान आकर्षित कराते हुए ये सीख देते कि अगर जीवन में कभी भी किसी भाई ने अपनी बहिन को अगर पीटा या उस पर हाथ उठाया तो उसके हाथ उस थोभ ( कंटीले ग्वारपाठे) की भांति उन पौधों के बीच उग जाएंगे, आज की भांति बच्चे उस दौर में तर्क नही करते थे, और बड़े बुजुर्गों की वह सीख सदैव स्मृत रख कर हृदयंगम कर देते थे. बेलगाडी पर सवार बच्चों को जब-जब कुछ खाने की इच्छा होती तो मीठे में गुड़ की डली या मिश्री या फिर बताशा तथा भोजन में रोटी सब्जी. ज्यादा से ज्यादा गुड़ का चूरमा या मैदे का सीरा परोस दिया जाता जो आज की महंगी से महंगी देशी विदेशी चॉकलेटों तथा मनभावन मिठाइयों से तो कहीं अधिक स्वादिष्ट व रुचिकर ही होती थी, पीने को पानी की केटली या फिर कपड़े की दिवड़ी में पानी समाया रहता, जहां तक इत्र सेन्ट जैसी खुशबु का प्रश्न है तो आज की तरह महंगे सेंट या परफ्यूम से कपड़ों को महकाया नही जाता था, अमूमन सरसों या तिल्ली का तेल ही उपयोग में लिया जाता या फिर घर पर बनाया ब्राह्मी आंवला या फिर चमेली का तेल जो बालों व चेहरे पर (चोपड़) मल कर अपने आस-पास के वातावरण को सुगन्धित कर देता था, जैसे ही नाकोड़ा तीर्थ नजदीक आता दिखता तो खुशियों का कोई ठिकाना नही रहता` क्योंकि मेले में हाथ से घुमाने वाले झूलों, बांसुरियों. पीपाड़ी (गुबारे के साथ लगी छोटी बांसुरी) माटी के खिलोने. खट्टी-मीठी टॉफियां, तथा रंग बिरंगी
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